कौन किस भाषा में बोलता और लिखता है, यह मोटे तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति का जन्म कहां हुआ है। दूसरी ओर, मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा को सीखने की आवश्यकता इस बात पर निर्भर है कि किस देश का प्रभुत्व दुनिया में ज्यादा है। जिस देश का प्रभुत्व होगा वहां की भाषा भी दुनिया सीखेगी। इतिहास और वर्तमान इस बात के साक्षी हैं कि शक्तिशाली लोगों की मातृभाषा विश्व स्तर पर सीखी, बोली और लिखी जाएगी और लिंग्वा फ्रांका बनेगी।
लिंग्वा फ्रांका का अर्थ है- इस्तेमाल में ली जाने वाली वो सबसे प्रभावशाली भाषा, जो इस्तेमाल करने वालों की मातृभाषा न हो। इस पैमाने पर देखें तो बीते तीन हजार साल में ग्रीक, लैटिन, पॉर्च्युगीज, स्पैनिश, फ्रेंच और अंग्रेजी अलग-अलग दौर में प्रभावशाली रही हैं। 18वीं सदी के मध्य में फ्रांस के विद्वान वॉल्टेयर ने 'फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री' लिखी। इसका विषय संपूर्ण मानव जाति का इतिहास था। अध्ययन में यह तथ्य निकलकर आया कि ईसा पूर्व नौवीं सदी से लेकर चौथी सदी तक यूरोप शहर रूपी कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से एथेंस व्यापार और सैन्य ताकत बनकर उभरा। इसलिए प्रभावशाली एथेंस की ग्रीक भाषा यूरोप की लिंग्वा फ्रांका बनी।
इसी दौरान रोमन साम्राज्य उभरने लगा और ईसा पूर्व 201 से आने वाले 600 वर्षों तक यूरोप का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बना रहा। लिहाजा कैथोलिक चर्च की ताकत बढ़ी और रोमन भाषा लैटिन लिंग्वा फ्रांका बन गई। चौथी सदी में रोमन साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया। इसके बाद यूरोप अंधेरे युग में प्रवेश कर गया। लेकिन लैटिन लिंग्वा फ्रांका बनी रही क्योंकि आने वाले एक हजार साल तक कोई नई वैश्विक शक्ति नहीं उभरी। 1492 में कोलंबस ने अमेरिका की खोज की और छह वर्ष बाद वास्कोडिगामा ने भारत में कदम रखा। ये दोनों यात्राएं पुर्तगाल के खर्चे पर हुई और इस तरह से पुर्तगाल साम्राज्य शक्तिशाली होने लगा। पुर्तगाल की देखा-देखी स्पेन और फ्रांस भी उपनिवेशवाद में कूदे। इस दौरान पॉर्च्युगीज, स्पेनिश और फ्रेंच लिंग्वा फ्रांका की दौड़ में रहीं। इंग्लैंड में स्थिति ऐसी थी कि राजघराने में शिक्षा फ्रेंच भाषा में ली जाती थी। सभ्य समाज में अंग्रेजी गरीबों की भाषा और दरिद्रता की निशानी मानी जाती थी।
17वीं सदी के अंत में स्पेन का युद्ध इंग्लैंड से हुआ, जिसमें इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ की जीत हुई। कुछ ही वर्षों में इंग्लैंड की नौसेना विश्व में सबसे शक्तिशाली बनी और अमेरिका से लेकर चीन तक इंग्लैंड का साम्राज्य फैल गया। विश्व की अधिकतम पूंजी, तकनीक और सैन्य शक्ति में इंग्लैंड का कोई मुकाबला न बचा। लिहाजा अंग्रेजी भी विश्व की लिंग्वा फ्रांका बन कर उभरी। फिर 1945 में दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में इंग्लैंड ने अपना वर्चस्व खो दिया, लेकिन चूंकि अमेरिका भी मुख्यतः अंग्रेजी भाषी था और पूंजी, तकनीकी और सैन्य ताकत में प्रथम राष्ट्र बनकर उभरा, इसलिए अंग्रेजी का दबदबा न सिर्फ बना रहा, बल्कि यह और बढ़ा।
अंग्रेजी आज भी ताकतवर है और तब तक ताकतवर रहेगी, जब तक विश्व के वित्तीय, सैन्य और तकनीकी ताकत अंग्रेजी भाषियों के पास रहेगी। आज जो हिंदी का प्रभुत्व बढ़ रहा है, वो इसलिए है क्योंकि भारत का प्रभाव भी दुनिया में बढ़ रहा है। जैैसे-जैसे यह बढ़ेगा, हिंदी भी बढ़ेगी। हिंदी लिंग्वा फ्रांका के तौर पर दुनिया में और विस्तार पाए इसके लिए जरूरी है कि भारत को अपनी वित्तीय, सैन्य और तकनीकी ताकत को बढ़ाना होगा। अंग्रेजी भाषा से लड़कर या उसका निषेध करके हिंदी लिंग्वा फ्रांका नहीं बन सकती। अंतरराष्ट्रीय संबंध शिक्षा संस्थान ने अंतरराष्ट्रीय मामलों की पढ़ाई करने वाले छात्रों को पढ़ने के लिए पांच भाषाएं सुझाई हैं। इनमें हिंदी भी है। संस्था का कहना है कि आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। यहां 24 आधिकारिक भाषाएं हैं, परंतु हिंदी लगभग सब जगह बोली जाती है और यह सबसे अधिक तेजी से बढ़ भी रही है।